महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर द्रौपदी मुर्मू ने आक्रोश व्यक्त किया, लेख लिखा… महिलाओं की सुरक्षा : बस! बहुत हो चुका!
NewDehi : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पीटीआई-भाषा के लिए अपने विशेष हस्ताक्षरित लेख में कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या पर पहली बार अपनी बात रखी है. उन्होंने महिलाओं के खिलाफ जारी अपराधों पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है. महिलाओं की सुरक्षा : बस! बहुत हो चुका! शीर्षक वाले लेख में उन्होंने […] The post महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर द्रौपदी मुर्मू ने आक्रोश व्यक्त किया, लेख लिखा… महिलाओं की सुरक्षा : बस! बहुत हो चुका! appeared first on lagatar.in.
NewDehi : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पीटीआई-भाषा के लिए अपने विशेष हस्ताक्षरित लेख में कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या पर पहली बार अपनी बात रखी है. उन्होंने महिलाओं के खिलाफ जारी अपराधों पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है. महिलाओं की सुरक्षा : बस! बहुत हो चुका! शीर्षक वाले लेख में उन्होंने कहा कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों में हालिया वृद्धि और इस बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए हमें ईमानदारी से आत्मावलोकन करना होगा. कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और उसकी हत्या की जघन्य घटना ने राष्ट्र को सकते में डाल दिया है. जब मैंने यह खबर सुनी तो मैं बुरी तरह स्तब्ध और व्यथित हो गयी. सबसे अधिक हताश करने वाली बात यह है कि ये केवल एक अकेला मामला नहीं है; यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की कड़ी का एक हिस्सा है. छात्र, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में जब प्रदर्शन कर रहे हैं तो उस समय भी अपराधी अन्यत्र शिकार की तलाश में घात लगाए हुए हैं.
Take a look at what President Murmu said in an exclusive article to PTI (n/8) –@rashtrapatibhvn #PresidentMurmuSpeaksToPTI #PTIFoundationDay pic.twitter.com/NTnt43boxF
— Press Trust of India (@PTI_News) August 28, 2024
पीड़ितों में छोटी छोटी स्कूली बच्चियां तक शामिल हैं.
द्रौपदी मुर्मू ने लिखा, पीड़ितों में छोटी छोटी स्कूली बच्चियां तक शामिल हैं. कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों के साथ ऐसी बर्बरता की अनुमति नहीं दे सकता. राष्ट्र का आक्रोशित होना स्वाभाविक है और मैं भी आक्रोशित हूं. पिछले साल महिला दिवस के अवसर पर मैंने एक समाचार पत्र में लेख के रूप में महिला सशक्तिकरण के बारे में अपने विचार और उम्मीदें साझा की थीं. महिलाओं को सशक्त बनाने में हमारी पिछली उपलब्धियों के कारण मैं आशावादी हूं. मैं खुद को भारत में महिला सशक्तिकरण की उस शानदार यात्रा का एक उदाहरण मानती हूं. लेकिन जब मैं देश के किसी भी हिस्से में महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के बारे में सुनती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है. हाल ही में, मैं एक अजीब दुविधा में फंस गयी थी, जब राष्ट्रपति भवन में राखी मनाने आए कुछ स्कूली बच्चों ने मुझसे मासूमियत से पूछा कि क्या उन्हें भरोसा दिया जा सकता है कि भविष्य में निर्भया जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी? मैंने उनसे कहा कि हालांकि राज्य हर नागरिक की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन आत्मरक्षा और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण सभी के लिए, खासकर लड़कियों के लिए, उन्हें मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है. लेकिन यह उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है, क्योंकि महिलाओं की कमजोरी कई कारकों से प्रभावित होती है. जाहिर है, इस सवाल का पूरा जवाब हमारे समाज से ही मिल सकता है. और ऐसा होने के लिए, सबसे पहले जरूरत है कि ईमानदारी और बिना किसी पूर्वाग्रह के आत्मावलोकन किया जाये.
हमें स्वयं से कुछ मुश्किल सवाल पूछने की जरूरत है
समय आ गया है कि जब एक समाज के नाते हमें स्वयं से कुछ मुश्किल सवाल पूछने की जरूरत है. हमसे गलती कहां हुई? और इन गलतियों को दूर करने के लिए हम क्या कर सकते है? इन सवालों का जवाब खोजे जाने तक हमारी आधी आबादी, दूसरी आधी आबादी की तरह स्वतंत्रतापूर्वक नहीं रह सकती. इसका उत्तर देने के लिए, मैं इसे शुरू में ही स्पष्ट कर देती हूं. हमारे संविधान ने महिलाओं सहित सभी को उस समय समानता प्रदान की, जब दुनिया के कई हिस्सों में यह केवल एक विचार था. राज्य (शासन) ने तब इस समानता को स्थापित करने के लिए, जहां भी ज़रूरत थी वहां संस्थाओं का निर्माण किया और इसे कई योजनाओं और पहलों के साथ बढ़ावा दिया. नागरिक समाज आगे आया और इस संबंध में राज्य के प्रयासों को गति प्रदान की. समाज के सभी क्षेत्रों में दूरदर्शी नेताओं ने लैंगिक समानता पर जोर दिया. अंत में, कुछ असाधारण, साहसी महिलाएं थीं, जिन्होंने अपनी कम भाग्यशाली बहनों के लिए इस सामाजिक क्रांति से लाभ उठाना संभव बनाया. यही महिला सशक्तिकरण की गाथा रही है. फिर भी, यह यात्रा बाधारहित नहीं रही.
महिलाओं को अपनी जीती हुई एक- एक इंच जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ा है
महिलाओं को अपनी जीती हुई एक- एक इंच ज़मीन के लिए संघर्ष करना पड़ा है. सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं ने हमेशा महिलाओं के अधिकारों के विस्तार का विरोध किया है. यह एक बहुत ही विकृत मानसिकता है. मैं इसे पुरुष मानसिकता नहीं कहूंगी, क्योंकि इसका व्यक्ति की लैंगिकता से कोई खास लेना-देना नहीं है: ऐसे बहुत से पुरुष हैं जिनमें यह नहीं है. यह मानसिकता महिला को कमतर इंसान, कम शक्तिशाली, कम सक्षम, कम बुद्धिमान के रूप में देखती है. ऐसे विचार रखने वाले लोग इससे भी आगे बढ़कर महिला को एक वस्तु के रूप में देखते हैं. महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कुछ लोगों द्वारा महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश करने की यही मानसिकता जिम्मेदार है. यह भावना ऐसे लोगों के दिमाग में गहराई से बैठी हुई है. मैं यहां यह भी कहना चाहूंगी कि… अफसोस की बात है कि यह केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है. एक से दूसरी जगह के बीच का अंतर अपराध की प्रकृति के बजाय उसके स्तर का होता है. इस प्रकार की मानसिकता का मुकाबला राज्य और समाज दोनों को करना है.
इन्हें केवल तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है.
भारत में, इतने सालों में, दोनों ने इस गलत नजरिए में बदलाव के लिए कड़ा संघर्ष किया है. कानून बनाये गये और सामाजिक अभियान चलाये गये, लेकिन इसके बावजूद कुछ ऐसा है जो लगातार हमारे रास्ते की बाधा बना हुआ है और हमें परेशान करता है. दिसंबर 2012 में, उस तत्व से हमारा सीधा आमना-सामना हुआ जब एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गयी. सदमे और गुस्से का माहौल था. हम दृढ़ संकल्पित थे कि किसी और निर्भया के साथ ऐसा न हो. हमने योजनाएं और रणनीतियां बनाईं. इन पहलों ने कुछ हद तक बदलाव किया. लेकिन इसके बावजूद, जब तक एक भी महिला उस माहौल में स्वयं को असुरक्षित महसूस करती रहेगी, जहां वह रहती या काम करती है, तब तक हमारा काम अधूरा ही रहेगा. राष्ट्रीय राजधानी में हुई उस त्रासदी के बाद के बारह वर्षों में, इसी तरह की अनगिनत त्रासदियां हुई हैं. हालांकि उनमें से कुछ ने ही पूरे देश का ध्यान खींचा. इन्हें भी जल्द ही भुला दिया गया. क्या हमने सबक सीखा? जैसे-जैसे सामाजिक विरोध कम होते गये, ये घटनाएं सामाजिक स्मृति के गहरे और दुर्गम कोने में दब गयी, जिन्हें केवल तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है.
इतिहास का सामना करने से डरने वाले समाज सामूहिक स्मृतिलोप का सहारा लेते हैं
मुझे डर है कि यह सामूहिक विस्मृति उतनी ही घृणित है जितनी वह मानसिकता जिसके बारे में मैंने बात की. इतिहास अक्सर दर्द देता है. इतिहास का सामना करने से डरने वाले समाज सामूहिक स्मृतिलोप का सहारा लेते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को रेत में दबा लेते हैं. अब समय आ गया है कि न केवल इतिहास का सीधे सामना किया जाए, बल्कि अपनी आत्मा के भीतर झांका जाए और महिलाओं के खिलाफ अपराध की इस बीमारी की जड़ तक पहुंचा जाये. मेरा यह दृढ़ मत है कि हमें इस तरह के अपराधों की स्मृतियों पर भूल का परदा नहीं पड़ने देना चाहिए. आइए, इस विकृति से व्यापक तरीके से निपटें ताकि इसे शुरू में ही रोका जा सके. हम ऐसा तभी कर सकते हैं जब हम पीड़ितों की यादों का सम्मान करें और उन्हें याद करने की एक सामाजिक संस्कृति विकसित करें ताकि हमें अतीत की अपनी विफलताएं याद रहें तथा हम भविष्य में और अधिक सतर्क रहें. अपनी बेटियों के प्रति यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके भय से मुक्ति पाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें. तभी हम सब मिलकर अगले रक्षाबंधन पर उन बच्चों के मासूम सवालों का दृढ़ता से उत्तर दे सकेंगे. आइये! हम सब मिलकर कहें कि बस, बहुत हो चुका!
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